रविवार, 30 जनवरी 2011

कविता

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कितना अकेला है इन्सान

दुनिया में है बस हैवान ,
इंसानी जिस्म में है हैवान.
घर कर जाता है हैवान
हर पल मर काट की है सोचे
प्रेम अहिंसा को वो भूले
प्रेम तो अब बना खिलौना.
जिस्म की प्यास बुझाने को
जिस्म में भी अब आग लगी
जलती नारी का संसार .
चारो और है हाहाकार
लूट मची है चारो ओर
जिस्म की प्यास बुझाने को
माँ-बेटी को लूट रहे हैवान
किस हद तक ये हैवान
खून करेगे इंसानों का.
जग ओ इन्सान फिर से
मिटा डाला इन हैवानो को
इनके घर को कब्र बना कर ,
दफ़न इन्हें उनमे करके.
इंसानों की दुनिया में तुम
इंसानों से नाता जोड़ो
कितना अकेला था इन्सान ,
अब न अकेला है इन्सान,




उगता सूरज साथ में अपने.
आशा की किरणे लाया
जीवन में इक नव प्रकाश का,
उगता सूरज संदेशा लाया
जीवन में नव क्रांति का ,
बिगुल फूकता सूरज आया
जागो ओ सोने वालो
अंधकार को मिटाने आया
अंधकार को मिटा ही डालो
जीवन में अपने करो प्रकाश
जिसमे मानव का हो उत्थान
जग में ऐसा काम करो
सूर्य किरण की आभा से
सीखो तुम जीवन जीना
जीवन के हर पल साथ है तेरे
सत-मार्ग पर चलना सीखो
कठिन बहुत है ,तपना पड़ेगा
तभी फैल सकेगा उजाला
जीवन की हर रहो पर ,
जीवन नहीं है सेज फूलो की
राह भरी है काँटों से
जीना चाहो तुम शांति से
शांति प्रचार ही करते जाओ


तन्हा सा इक पेड़ खड़ा है
साथ में न उसके कोई भी है
वो भी तड़प रहा ही होगा
हरियाली की खातिर ही सही
कितनी दुर्बल ,कितना निर्बल.
सूखा साखा सा वो पेड़
छाया भी अब दूर खड़ी है.
तरस रहा हरियाली को
ताक रहा है बादल को वो.
शायद कुछ बूंदे मिल जाये
बादल भी उससे है रूठे
उड़ते जाते -उड़ते जाते
पवन के झोके तन पर उसके
शूल वार से करते है
सूरज की गर्मी में वो ताप कर
सूखा रुखा सा वो पेड़
मांग रहा है मेघो को
बादल भी कितना हरजाई
बरस रहा है हरयाली मे
सूखा वृक्ष है गिरता जाता
अंतिम सासे गिनता जाता
इक दीन इक हवा का झोका
उसको घायल कर ही कर गया
गिरा धरा पर फिर न उठा
जीवन लीला मिट ही गई


शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

मेरी कविताए

पूस की ठंडी रातो में
में अपने एसी कमरे में
जाड़े की ठंडी रातो में ,
नर्म मुलायम कम्बल में,
गर्म बिस्तर के साये में
जब सोता हू तो याद है आता
सड़को पर सोने वालो की
सर्द हवा का झोका आता
ठंडक का अहसास करता
सिरह सी जाती रूह है अपनी
जब आती है उन बेचारो की याद
कितनी मुश्किल कितनी कठोर
उन बेचारो की मुश्किल रात.