मंगलवार, 22 नवंबर 2011

एक नाव किनारे पर /अजामिल



कविता / छायाकार मित्र विकास चौहान

एक नाव किनारे पर /अजामिल

दुःख-सुख के भवसागर

में हिचकोले खाने के बाद

मेरे जीवन की नाव इस घाट आ लगी है-

जर्जर देह कामनाओ की मांस-मज्जा को

छोड़ते हुए

मोह की डोरी से बंधी है मेरी आखिरी सांसे

मेरे पैरों के नीचे स्मृतियो का जल

मुझे हिला रहा है धीरे-धीरे

कोई कह रहा है इस घाट पर

यह देह मुझे छोडनी होगी और जाना होगा

उस सत्ता के पास जहाँ से नहीं लौटता

कोई कभी |